* दीप जला दूसरों की खातिर *
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एक दीप जलकर चला अपनी मंजिल पर।
मन में दूसरों को रौशनी देने की चाहत लेकर।
वो खुद सदां अँधेरे में रहकर जलता रहा।
दूसरों को उजाला देने की खातिर।
उसे भी उजाले की जरुरत होगी।
ये कभी किसी ने सोचा ही नहीं।
तेज हवाओं ,बरसात की बूंदों की ठोकर खाकर।
जब दीप जलते -जलते थककर बुझ गया।
वो दीप कहाँ है किस हाल में पड़ा है।
उसकी ओर किसी ने कभी मुड़कर देखा ही नहीं।
आज यही दस्तूर है हमारे संसार के लोगों का।
अपना मतलब निकल जाने के बाद।
किसी ने कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं।
आज फिर भी दीप की तरह कुछ लोग हैं ऎसे।
जिन्होंने अपनी परवाह कभी की ही नहीं।
वे हमेशा जीये दूसरों की खातिर।
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* बिनेश कुमार * २६/९/२०१३ * प्रात : ५ बजे *
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