* अजनवी का दर्द *
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फूल के जैसा मुरझाया हुआ चेहरा मेरा।
बच्चे के जैसे रो रहा दिल मेरा।
बच्चे का दर्द तो उसकी मां समझ लेती है।
मेरा दर्द कंकर -पत्थर के ढेर जैसा है।
अंजानो की भीड़ में भटकता फिर रहा हूँ।
कोई अपनों के जैसा मिले उसे ढूंढ़ रहा हूँ।
इस अंजान दुनिया में सब तमाशा देखने वाले हैं।
अजनवी का दर्द यहाँ कौन समझने वाला है।
हंसने का मौका जिसे मिले भला क्यूँ छोड़ने वाला है।
यहाँ कदम -कदम पर ठोकर मारकर दर्द देने वाले हैं।
यहाँ दर्द के आंसू भला कौन किसी के पोछने वाला है।
यहाँ हर कोई बेरहम दिल दुनिया वालों से डरता है।
क्या रिश्ता बतायें उन्हें जो कोई उसे समझेगा।
यहाँ तो सब मतलब के रिश्तों का दिखावा करने वाले हैं।
इंसानियत के रिश्तों को यहाँ कौन समझने वाला है।
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* बिनेश कुमार * १८/९/२०१३ * प्रात : ५ बजे *
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