Monday, 30 September 2013

* इंसान और जानवर में फर्क *


* इंसान और जानवर में फर्क *
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हमने खुद अपनी नजरों से देखा है।

दिल से किया हुआ विश्वास ओर नफरत को टूटते हुए।

रिश्तों को पल -पल में गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए।

रिश्तों के साथ खिलवाड़ करना तो कोई इंसान से सीखे।

रिश्तों का फ़र्ज़ निभाना तो कोई जानवर से सीखे।

अपनी जिन्दगी तो हर एक इंसान जीता है।

अपने वसूलों के लिए कोई -कोई जीता है।

जो अपने वसूल ओर आत्मविश्वास की कीमत ना समझ सकते।

वो जिन्दगी में किसी ओर की कीमत क्या समझेगें।

रिश्तों का दिखावा करना तो कोई इंसान से सीखे।

प्यार करना ,ओर निभाना तो कोई जानवर से सीखे।

जो दूसरों की खातिर अपनी जान कुर्बान कर देते हैं।

वे इंसानों की तरह बेवफा - मतलबी  नहीं होते।

जो इंसान खुद ना संभल सके वो दूसरों को क्या सहारा देंगे।
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   * बिनेश कुमार  * २९/९/२०१३ *  प्रात : ४ बजे  *


* ए दिल प्यार तूने ऐसा क्यूँ किया *

 * ए  दिल प्यार तूने ऐसा क्यूँ किया  *
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ए  दिल प्यार तूने एस क्यूँ किया।
जब तुझे किसी ने समझा ही नहीं।
जिनका दर्द तूने बांटना  चाहां था।
उन्होंने तो तेरा दर्द कभी समझा  ही नहीं।
जो रिश्ता इंसानियत तूने निभाना चाहा था।
उसे किसी ने कभी पहचाना ही नहीं।
तूने अपने -पराये के बिच की दूरी को कम करना चाहा।
उनहोंने कभी इसका अहसास किया ही नहीं।
हर दिल एक जैसा नहीं होता।
जैसे दिन ओर रात कभी एक होते नहीं।
क्यूंकि हर दिल अलग -अलग इंसानों के इशारे से चलता है।
तू भी तो बेबस लाचार है जो ऐसे चलता है।
गाडी  मजबूर होकर चलती है जैसे।
सबको चलाने वाला तो इंसान ही होता है।
दिल ओर गाडी का तो काम सिर्फ चलना होता है।
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* बिनेश कुमार * ३०/९/२०१३ *

 

Saturday, 28 September 2013

* उनका जीवन कैसा होगा *



   * उनका जीवन कैसा होगा  *
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जब किसी का सहारा उससे दूर हो जाये।
अंधे और लंगड़े की लाठी की तरह।
जब किसी की रात बगैर नींद ओर दिन बिना चैन के बीते।
उनका जीवन भला कैसा होगा।

मन को खाना -पीना न भाये रिश्तों की दुरी के गम में।
बीन पानी मछली तडपे ,डाल से काटकर फूल मुरझाये जैसे।
जिन्दगी जीने का सहारा जिनसे दूर हो जाये ।
उनका जीवन भला कैसा होगा   । .

जिनसे मिलकर दुःख -दर्द कम , भूख -प्यास मिट जाये।
अपनों से बिछड़ने के गम में जीने का मकसद बदल जाये।
जिन्दगी मौत से बद्दर जिनकी हो जाये।
उनका जीवन भला कैसा होगा।
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   * बिनेश कुमार  * २८/९/२०१३ * प्रात : ४ बजे *     

Friday, 27 September 2013

* दीप जला दूसरों की खातिर *

 * दीप  जला दूसरों की खातिर  *
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एक दीप जलकर चला अपनी मंजिल पर।
मन में दूसरों को रौशनी देने की चाहत लेकर।
वो खुद सदां अँधेरे में रहकर जलता रहा।
दूसरों को उजाला देने की खातिर।
उसे भी उजाले  की जरुरत  होगी।
ये कभी किसी ने सोचा ही नहीं।
तेज हवाओं ,बरसात की बूंदों की ठोकर खाकर।
जब दीप जलते -जलते थककर बुझ गया।
वो दीप कहाँ है किस हाल में पड़ा है।
उसकी ओर किसी ने कभी मुड़कर देखा ही नहीं।
आज यही दस्तूर है हमारे संसार के लोगों का।
अपना मतलब निकल जाने के बाद।
किसी ने कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं।
आज फिर भी दीप की तरह कुछ लोग हैं ऎसे।
जिन्होंने अपनी परवाह कभी की ही नहीं।
वे हमेशा जीये दूसरों की खातिर।
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   * बिनेश कुमार  * २६/९/२०१३ * प्रात : ५ बजे *

Monday, 23 September 2013

meri chahat

    * मेरी चाहत  *
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मेरी चाहत नही है किसी को हासिल करने की।

मेरी चाहत है ये प्यार देकर के मैं प्यार दुनिया से पाऊं।

मेरी चाहत नहीं है किसी की दौलत को हडपने की।

बस मेरी चाहत है इंसानियत का रिश्ता दिल से निभाने की।

वे बेसक मुझे  भूल जायें अपना बिता हुआ कल समझकर।

मैं आज भी याद उन्हें करता हूँ अपना आज समझकर।

मेरी ये कोशिश है अपने कर्मों के दमपर अजनबियों के दिल में।

अपने रिश्तों के जैसी उनके दिल में जगह बनाऊं।

मैं अपने नाम से नहीं कर्मों अपनी पहचान बनाऊं।

मेरी चाहत है रोज़ नहीं तो कभी एक रोज़ तो मैं उन्हें याद आऊं।

मेरी चाहत नहीं किसी को धोखे -जबरजस्ती ,ताकत से अपना बनाऊं।

मेरी ये चाहत है प्यार -मोहब्बत ,ओर इंसानियत के रिश्ते से अपना बनाऊं।
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 * बिनेश कुमार * २३/९/२०१३ *    सुबह  ९ बजे *

Saturday, 21 September 2013

* बेजुबान ऐसे बोलते है *


* बेजुबान ऐसे बोलते है *
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जो लोग मुंह से अपने कुछ नहीं बोलते हैं।

उनके लिखे हाथों से वो शब्द बोलते हैं।

उनके दिल की असलियत के वे हर राज खोलते हैं।

जो कर्म अच्छा लगन ओर महनत से करते हैं।

वे कभी फल की उम्मीद नहीं करते हैं।

वे अक्सर अपनी मंजिल में कामयाब  होते हैं।

जो पहले फल की उम्मीद लेकर कर्म करता है।

वे कभी अपनी मंजिल में कामयाब  नहीं होते हैं।

कर्मों का फल देना तो भगवान् का काम है।

जो खुद को ना बेचता है ओर न किसी को खरीदता है।

जमीन पे रहने वाले इंसान से फल की उम्मीद क्या करोगे।

जो खुद को ही कदम -कदम पे बेचता है।
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* बिनेश कुमार * २१/९/२०१३ *  दोपहर  १२ बजे *  

* असली -नकली का दिखावा *

    * असली -नकली का दिखावा  *
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आज जो बाजार में दिखता है वही बिकता है।

जो दरवाजों में बंद रहता है वो कभी नहीं बिकता है।

जब किसी के जनाजे पे दिखावटी आंसुओं से रोता है।

उसे वहां पर मौजूद हर सख्स देखता है।

जो रात के अंधरे में दिल के आंसुओं से रोता है।

अपनों से बिछड़  जाने के  गम  में।

उन्हें कभी कोई देख ही नहीं पाता  है।

आज झूठा दिखावा बाज़ार की रौनक बन गया है।

उसकी असलियत क्या है उसे कोई समझना  नहीं चाहता है।
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  * बिनेश कुमार  * १९/९/२०१३ * प्रात : ३ बजे *

Friday, 20 September 2013

ahsaas

 *  अहसास अपनों के रिश्तों जैसा *
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किसी ने मुझे रिश्ते बनाने सिखाये अपनों के जैसे।

वो अचानक एक दिन मुझसे दूर हो गए ऐसे।

कोई पैड का पत्ता हवा के झोके से टूट कर गिर गया हो जैसे।

किसी ने अजनवी को आकर गिरते हुए संभाला ऐसे।

मानो कोई जन्म का रिश्ता है उनका उससे अपनों के जैसे।

दर्द कम हो जाते हैं उन्हें देखकर कोई दबाई मिल गई हो जैसे।

दिल की हर बात कहने को मन करता है कोई रिश्ता है जैसे।

वे मुझसे अपनी हर ख़ुशी -गम बांटते हैं मै कोई उनका हूँ जैसे।

जब भी हम  मिलते हैं एक अहसास होता है अपनों के जैसे।

हम एक -दुसरे के दर्दो  के बीच खड़े रहते हैं दिवार के जैसे।

कोई दर्द छूनाले किसी को हम अड़े रहते हैं अपनों के जैसे।
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  * बिनेश कुमार  * २०/९/२०१३  *प्रात : ४ बजे *    

Wednesday, 18 September 2013

ajnvi ka dard

   * अजनवी  का  दर्द  *
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फूल के जैसा मुरझाया  हुआ चेहरा मेरा।
बच्चे के जैसे रो रहा दिल मेरा।
बच्चे का दर्द तो उसकी मां समझ लेती है।
मेरा दर्द कंकर -पत्थर के ढेर जैसा है।
अंजानो की भीड़ में भटकता फिर रहा हूँ।
कोई अपनों के जैसा मिले उसे ढूंढ़ रहा हूँ।
इस अंजान दुनिया में सब तमाशा देखने वाले हैं।
अजनवी का दर्द यहाँ कौन समझने वाला है।
हंसने का मौका जिसे मिले भला क्यूँ छोड़ने वाला है।
यहाँ कदम -कदम पर ठोकर मारकर दर्द देने वाले हैं।
यहाँ दर्द के आंसू भला कौन किसी के पोछने वाला है।
यहाँ हर कोई बेरहम दिल दुनिया वालों से डरता है।
क्या रिश्ता बतायें उन्हें जो कोई उसे समझेगा।
यहाँ तो सब मतलब के रिश्तों का दिखावा करने वाले हैं।
इंसानियत के रिश्तों को यहाँ कौन समझने वाला है।
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    * बिनेश कुमार  * १८/९/२०१३ * प्रात : ५ बजे *

Tuesday, 17 September 2013

ek bada balvan

 * एक  बड़ा  बलवान  *
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एक -एक कंकर -पत्थर जोड़कर महल बना  सपनो का।
एक -एक बूंद पानी की जोड़कर सागर भरता है।
एक -एक दोस्त के प्यार से जोड़कर मेरा दोस्ती का सागर बना।
भरे पानी के सागर में अक्सर और ही डूबते  हैं।
मैं  अपने दोस्ती के बने सागर में खुद ही डूब गया।
किसी ने सहारा देकर किनारे पर लाकर छोड़ दिया।
तो किसी ने अपना बनाकर मुझे बीच भवर  में छोड़ दिया।
मैं समझ पाता किसी को सर पर रखकर हाथ मुझे डूबा  दिया।
मैं ऐसा डूबा अपने ही सागर में बाहर कभी निकल पाया नहीं।
मैंने कोशिश बहुत की पर कोई किनारा दिखा ही नहीं।
मेरी जगह कोई ओर होता तो खुद को बचाकर दुसरे को डूबा देता।
परन्तु मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं।
मैं तो डूबा दुसरे को बचाने की कोशिश में।
लेकिन मुझे किसने कभी समझा ही नहीं।
एक अच्छा  भला इंसान पागल कैसे होता है।
जब मैंने खुद को गौर से   आईने देखा।
तब मुझे पता चला कि वो मेरे जैसे ही होते हैं।
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     *   बिनेश कुमार   * १७/९/२०१३ * प्रात : ३:३० बजे  *  


Monday, 16 September 2013

kavar pej

       

                      फोटो 
    

               * जिन्दगी  का सफ़र  *
           * ये पुस्तक प्रतिएक  इंसान की जीवन शैली पर आधारित है।  *




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                           पेज - २ ,

                     सूचि 
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                  टेक्निकल  सहायता  -: 
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               श्री  मधुरं श्रीवास्तव   
              
                श्री बिर्जेश पचोरी  ,


                  प्रेरणा  के श्रोत -:
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               डा  इरफ़ान  ए  रिजवी ,
              
             श्री  सचिन शर्मा ,
   
              श्री प्रशांत  काला ,

             सुश्री  नेहा  लाल ,

            सुश्री  सोनिया  टक्कर ,
         
            सुश्री  किन्नी  दूंगा ,
                --------------
           परिवार के खास  सदस्य  आदि। 
        
         * जिनसे मुझे अटूट  विश्वास ओर  प्यार , इंसानियत के  रिश्ते मिले  * 

























































































neend

 * नैनों  में  नींद *
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तुम आस्था ,वासना  हो मेरे मन की।
तुम तन मन से बसी हो मेरे मन में।
तुम जब मेरे पास आती हो।
तुम्हारे  आने की आहट मुझे लग जाती है।
जब तुम चाहो मेरे नैनों  में आकर  बस जाती हो।
हम दोनों एक दुसरे में लिप्त होकर समा  जाते हैं।
ना शीश महल ,ना मखमल का बिस्तर तुम्हारी  चाहत है।
सच्चा प्रीत  है तुम्हारा मुझसे।
जंगल में खुले आसमां  के निचे पास मेरे  चली आती हो।
तुम मेरी मैं  तुम्हारी  चाहत हूँ।
फिर क्यूँ तुम दूर मुझसे चली जाती हो।
कड़कती  तेज धुंप में भी तुम मुझे प्यारी लगती हो।
सजा भोजन का थाल भी मुझे भाता  नहीं।
जब तुम पास मेरे नैनों  में होती हो।
सच्ची  साथी हो तुम मेरी।
वे वक्त तुम नैनों में मेरी चली आती हो।
जब मैं  किसी ओर  को चाहता हूँ।
तुम धीरे से नैनों से दूर जाकर फ़र्ज़ अपना  निभाती हो।
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 * बिनेश कुमार  * १६/९/२०१३ * प्रात : ३ बजे।