Saturday, 21 June 2014

* जीवन का सफर *

 
* जीवन का सफर *
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बचपन में किसी के आँगन में खुशियाँ दीं।
हमारी किल कारी से अंगना उनका गूंजा।

उन्होंने जो सपने सजोये थे साकार हुए।
अपने-परायों का प्यार-दुलार भरपूर मिला।
जब जवानी का दौर आया।
हम एक-दूजे का सहारा बनने लगे।
जीवन के सफर में एक-दूजे से गीले-सिक्वे होने लगे।
एक-दूजे का रूठने मनाने का सिलशिला यूँ ही चलता रहा।

जिंदगी का सफर इस तरह अग्रसर बढ़ता रहा।
न कुछ दिया किसी को ,न कुछ लिया किसी से।

बस एक-दूजे का साथ सुख-दुःख में देते रहे।
फ़र्ज़ अपने रिश्ते का यूँ ही निभाते रहे।

जब बुढ़ापे का अंतिम दौर आया।
हम खुद बेसहारा होने लगे।

अपनों का सहारा न मिला ,तब लकड़ी का सहारा लेने लगे।
मौह -माया ,धन-दौलत ,रिश्ते-नाते सब छूट ने लगे।

जब जीवन का सफर अंतिम पड़ाव में आने लगा।
न दर्द किसी का देखा ,न तड़फ़ना किसी का देखा।

सब कुछ छोड़कर ढाई गज की चादर ओढ़कर।
धरती माँ की गोद में पैर पसार सो गए।
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